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मोदी राज में अंग्रेज़ी राज की तरह बिना मुकदमा जेल में बंद हैं लोग- अमर्त्य सेन

 06 Apr 2024

 

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन और कई अन्य  अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि वाले शिक्षाविदों ने भारत में मानवाधिकार की स्थिति पर चिंता जतायी है। उन्होंने एक बयान जारी कर बिना मुक़दमा चलाये  पत्रकारों और लेखकों को लंबे समय तक जेल में रखने पर आपत्ति जतायी है।


आपत्ति में क्या बातें सामने आई ?

अमर्त्य सेन ने संयुक्त बयान से अलग ये भी कहा कि "ब्रिटिश शासन में बिना मुक़दमों के लोगों को जेल में रखा जाता था। इनमें से कुछ ऐसे भी होते थे जिनकों बिना किसी सुनवाई के लंबे समय तक जेल में रखा जाता था। मुझे विश्वास था कि जब भारत स्वतंत्र होगा तो औपनिवेशिक भारत में प्रयोग की जानें वाली यह अन्यायपूर्ण प्रथा को समाप्त कर दिया जायेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है, आज भी यह अन्यायपूर्ण प्रथा आज़ाद भारत और लोकतंत्र में क़ायम है"।

बयान में कहा गया है कि रिपोर्टर्स सैंस फ्रंटियर(आरएसएफ) ने यूरोपीय संघ से दिल्ली पुलिस के चार वरिष्ठम अधिकारियों पर प्रतिबंध लगाने के लिए कहा है जो सीधे रूप से स्वतंत्र मीडिया 'न्यूज़ क्लिक' के साथ काम कर रहे कई पत्रकारों के ख़िलाफ़ अत्याचार में शामिल हैं। पेरिस स्थित रिपोर्टर्स सैंस फ्रंटियर एक ग़ैर-सरकारी संगठन है जो सूचना की स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा पर काम करता है।

शिक्षाविदों ने कहा कि इन पत्रकारों ने जो कुछ भी किया है,  उसको सरकार ने सरकार की आलोचनाओं के रूप में लिया है। कई पत्रकार और लेखकों के घर और दफ़्तरों की जाँच की गयी, जो कई हफ़्तों तक चली। न्यूज़ क्लिक के संस्थापक 75 वर्षीय प्रवीर पुरकायस्थ का ज़िक्र करते हुए बयान में कहा गया है कि  बिना किसी सबूत के उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। वे छह महीने से जेल में हैं लेकिन अब तक कोई आरोपपत्र जारी नहीं किया गया है। सबकों स्पष्ट नज़र आ रहा है कि किस तरह से मीडिया की स्वतंत्रता पर हमला किया जा रहा है।

बयान में भीमा कोरेगांव - एल्गार परिषद् मामले और दिल्ली दंगों की साज़िश में गिरफ्तार उन लोगों का भी जिक्र है जो कई वर्षों से जेलों में बंद है। अभी तक उन पर आरोप सिद्ध नहीं हो पाया है। भारत सरकार ने संसद के माध्यम से ऐसे क़ानून को मान्यता दी हुई है जिसके ज़रिए मुक़दमे के बिना लोगों को लंबे समय तक कारावास में रखा जा सकता है। किसी भी तरीके से ऐसे क़ानूनों को मान्यता देने का अर्थ है कि संवैधानिक मौलिक अधिकारों को समाप्त कर दिया गया है। यह संविधान को कमज़ोर करने और लोकतंत्र को पलटने जैसा है।

रिपोर्टर्स सैंस फ्रंटियर ने कहा है कि इस मामले को यूरोपीय संघ की राजनयिक सेवा को सौंप दिया गया है। और अनुरोध किया गया है कि दिल्ली पुलिस की आतंकवादी विरोधी इकाई के चार अधिकारियों के ख़िलाफ़ प्रतिबंध लगाने के लिए भारत सरकार से कहा जाये।

बयान पर अमर्त्य सेन के अलावा प्रसिद्ध लेखक अमिताव घोष हैं; प्रिंसटन के प्रोफेसर वेंडी ब्राउन और जान वर्नर-मुलर; कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले के जूडिथ बटलर; कोलंबिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर गायत्री चक्रवर्ती स्पिवक, शेल्डन पोलक, जोनाथन कोल, कैरोल रोवेन और अकील बिलग्रामी; शिकागो विश्वविद्यालय की प्रोफेसर मार्था सी. नुसबौम; न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय के स्टीवन ल्यूक्स; येल के डेविड ब्रोमविच; थॉमस जेफरसन स्कूल ऑफ लॉ के प्रोफेसर मार्जोरी कोहन; हार्वर्ड विश्वविद्यालय के जेनेट ग्यात्सो; मॉन्ट्रियल विश्वविद्यालय के चार्ल्स टेलर; और यरूशलेम में हिब्रू विश्वविद्यालय के डेविड शुलमैन ने हस्ताक्षर किये हैं।


न्यायपालिका ने भी बिना आरोपपत्र के जेल में रखने पर जतायी थी आपत्ति

हाल ही में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि बिना आरोपपत्र के लोगों को जेल में रखना, लोगों के मौलिक अधिकारों के ख़िलाफ़ है। यह अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला होता है।